मै रोया प्रदेश में, भीगा माँ का प्यार !
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार !!

Monday, April 14, 2008

अपने माँ-बाप का दिल ना दुखा (विडियो)

बहु-बेटे द्वारा माता-पिता पर किये आत्याचारों की कहानी
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Friday, April 11, 2008

एक ही आँगन में हो

(माँ की याद दिलाने वाली एक ऐसी रचना जो रुलाने को मजबूर कर दे )
दो भाई, दोनों अलबेले
तब माँ जिंदा थी. हम भाई घर से दूर अपनी अपनी दुनियाँ में आजिविका के लिये जूझा करते थे. हमारे अपने परिवार थे. मगर हर होली और दिवाली को हम सबको घर पहुँचना होता था. पूरा परिवार इकठ्ठा होता. मामा मामी, चाचा चाची, मौसा मौसी, बुआ फूफा और उनके बच्चे. घर में एक जश्न सा माहौल होता. पकवान बनते, हँसी मजाक होता. ताश खेले जाते और न जाने क्या क्या. उन चार पाँच दिनों का हर वक्त इंतजार होता. माँ कभी एक भाई के पास रहती, कभी दूसरे के पास मगर अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था वो, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
अधिकतर वो अपने घर ही रहती. वो उसके सपनों का महल था. उसे उसने अपने पसंद से बनाया और संजोया था. वहाँ वो अपने आपको को रानी महसूस करती थी, उस सामराज्य की सत्ता उसके हाथों थी. उस तीन कमरे के मकान में उसका संसार था, उसका महल था, उसका आत्म सम्मान था. हम सब भी उसी महल के इर्द गिर्द अपनी जिंदगी तलाशते.
सारे बचपन के साथी उसी महल की वजह से थे. न वो रहे- न साथी रहे. अजब खिंचाव था. फिर एक दिन खबर आती है कि माँ नहीं रही (इतना अंश मेरे अंतरंग मित्र रामेश्वर सहाय 'नितांत' की कहानी"माँ" से, जो मैने उसे लिखकर दिया था और उसने इसका आभार लिखा था नवभारत दैनिक में) .....................अब इस कविता को देखें:
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दो भाई:
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दो भाई, दोनों अलबेले
एक ही आँगन में वो
खेले एक सा माँ ने उनको पाला
एक ही सांचे में था
ढाला साथ साथ बढ़ते जाते हैं
फिर जीवन में फंस जाते
हैं राह अलग सी हो लेती है
माँ याद करे-फिर रो लेती है.
दोनों की वो सुध लेती है
उनके सुख से सुख लेती
है फिर देखा संदेशा आता
दोनों को वो साथ रुलाता.
माँ इस जग को छोड़ चली है
दोनों से मुख मोड़ चली है
दोनों का दिल जोड़ रहा था
वो सेतु ही तोड़ चली है.
शांत हुई जो चिता जली थी
यादों की बस एक गली थी
पूजा पाठ औ' सब काम हो गये
अब जाने की बात चली थी.
दोनों फिर निकले-जाते हैं,
फिर जीवन में फंस जाते हैं.
रहा नहीं अब रोने
वाला देखो, कब फिर मिल पाते हैं.
- -समीर लाल 'समीर'
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अब पढिये इस लेखन पर पाठको के विचार
अनूप शुक्ला ने कहा…
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं।

अनूप शुक्ला ने कहा…
ऐसे ही हमारे मन-पुल टूटते चले जाते हैं। शायद यही जीवन है।

Tarun ने कहा…
समीर जी, ऐसी सेंटी टाईप पोस्ट मत लिखा कीजिये। आपकी ये पोस्ट बिल्कुल यादें के उस गाने की तरह है.... "यादें याद आती हैं"

Shrish ने कहा…
जीवन के सत्य को दर्शाती एक सुन्दर कविता।
mahashakti ने कहा…
बड़ी मार्मिक कविता है, सुन्‍दर लेख

मोहिन्दर कुमार ने कहा…
आपने तो सुबह सुबह ही रुला दिया समीर जी.....मां तो मां ही होती है... मुझे भी अपनी स्वर्गवासी मां की याद आ गयी..दिल को छूने वाली रचना
Mrinal Kant (मृणाल कान्त) ने कहा…
बहुत अच्छा, हृदयस्पर्शी,और बहुत सी बातों की ओर ध्यान दिलाने वाला भी।
बेनामी ने कहा…
very real
yogesh samdarshi ने कहा…
बहुत खूब अभिव्यक्ति है सर. दोनों की वो सुध लेती है उनके सुख से सुख लेती है फिर देखा संदेशा आता दोनों को वो साथ रुलाता.

Manish ने कहा…
भावभीनी रचना !

पूनम मिश्रा ने कहा…
दिल को छू लिया.

ranju ने कहा…
samir ji aap ka yah roop bhi bahut hi dil ko chu lene waala hai ..bahut hi sahi laga isko padh ke bahut kuch yaad aa gaya ..
संजय बेंगाणी ने कहा…
दिल को छू जाने वाली मार्मिक कविता.कुछ ज्यादा ही 'सेंटी' नहीं हो गई?
Rakesh Khandelwal ने कहा…
ज़िन्दगीजो हैएक नदी केकिनारों को जोड़ते पुल की तरहऔर हम लोगमह्ज गुजर जाने के लिये हैंइस पर से.मध्य मेंअगर रुकमिला दिये जायेंप्रावाह में कुछ मोतीतो पड़ता है फ़र्कसिर्फ़अपनी ही अनुभूतियों में.

Dr.Bhawna ने कहा…
माँ का स्थान संसार में कोई नहीं ले सकता। माँ अपने बच्चों का मन पढ लेती है, बिना कहे ही सब समझ जाती है माँ का साथ न हो तो मन की बातें मन में ही रहती हैं कुछ बातें होती हैं जो हम माँ के साथ ही बाँट सकते हैं काश हममें से किसी का, कभी भी, माँ का साथ न छूटा करता पर संसार का नियम हम नहीं बदल सकते, पर काश ऐसा हो पाता!!! आँखे भर आयीं आपकी ये रचना पढकर।
Udan Tashtari ने कहा…
आप सबका बहुत आभार, धन्यवाद.किसी को दुख पहुँचाना या रुलाना मेरा कतई उद्देश्य नहीं था, यह तो जीवन के यथार्थ की अभिव्यक्ति मात्र था. मगर साथ मैं बहुत खुश भी हूँ कि आपने रचना को ध्यान से पढ़ा और उसके मर्म को महसूस किया.आप सबका बहुत धन्यवाद.
Udan Tashtari ने कहा…
तरुण भाईमैं इस तरह की पोस्ट कम ही पोस्ट करता हूँ, लिखता जरुर हूँ और आगे से प्रयास करुँगा कि और कम कर दूँ, अब तो मुस्करा दे भाई.. :)

Udan Tashtari ने कहा…
संजय भाई,सच कह रहे हैं. अब लग रहा है ज्यादा ही सेंटी हो गई है. सबके दिल को दुखा कर बड़ी ग्लानी हो रही है.

रजनी भार्गव ने कहा…
कहीं मन के कोने में ये अहसास अभी भी है, आपका लेख पढ़ा तो याद आ गया.बहुत खूब.

Dr.Bhawna ने कहा…
नहीं समीर जी ग्लानि या दिल दुखाने वाली बात क्यों करते हैं ये तो वो हकीकत है जो हम सब जानते हैं यही सृष्टि का नियम है और जब दिल दुखता है तो शब्द भी रोते हैं मैंने भी इस दर्द का महसूस किया है चाहे वो मेरी दादी माँ के या बुआ माँ के जाने हो अन्तिम दर्शन तक नहीं कर पायी दूर रहने के कारण, मैंने भी अपने ब्लॉग में अपना दर्द उकेरा है। आप लिखते रहिये इस बार वादा है आँसू नहीं आयेगे, आये भी तो आपको पता नहीं चलेगा खुश :) :)

मोहिन्दर कुमार ने कहा…
दिल को दुखाने वाली कोई बात नही है समीर जी... रचना वही जो दिल को छू जाये... और कवि वही बनते हैं जो दर्द को महसूस कर सकते है और इस का दूसरों को एहसास भी करा सकते हैं

antarman ने कहा…
समीर भाई,आप के व भाई साहब के साथ मेरे श्र्ध्धा विगलित आँसू,....." माँ जी " के चरणोँ पे ......माँ को बनाया परम कृपालु ईश्वर ने जब उसने सोचा कि " वे हर किसी के पास, किस रुप मेँ रह पाये ? "तब " माँ " का रुप ईश्वर की प्रतिच्छाया बन कर,उद्`भासित हो गया !......श्च्ध्धा सुमन अँजुरि समेटे,-- लावण्या
Reetesh Gupta ने कहा…
बहुत भावपूर्ण लिखा है लालाजी....बधाई

DR PRABHAT TANDON ने कहा…
अंत्यत मर्मस्पर्शी कविता , बिल्कुल इस दौर की सच्चाई को दिखाती हुयी।
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ऎ माँ ! तेरी सूरत से अलग ...



ईश्वर को माँ बनाने में लगभग आठ दिनों तक ओवरटाईम करना पड़ा। नौंवे दिन उसके सामने फरिश्ता हाज़िर हुआ और बोला कि "प्रभु, आप इस नाचीज़ को बनाने में इतना समय क्यों बरबाद कर रहे हैं?" हूं....ईश्वर बोला "तुम जिसे नाचीज़ समझ रहे हो उसे बनाना इतना आसान काम नहीं था।" अच्छा...! फरिश्ते ने कहा। ईश्वर ने कहा, इस माँ में मैंने कई नायाब लक्षण डाले हैं। कैसे गुण? फरिश्ते नें तपाक से पूछा। अब देखो, इसे कैसे भी मोड़ा जा सकता है, लेकिन यह फटेगा नहीं। इसमें लगभग दो सौ चलने-फिरने वाले पुर्ज़े लगे हैं, और सभी को बदला भी जा सकता है। यह सिर्फ़ चाय और बचे-खुचे जूठन पर चल सकती है। जरूरत पड़ने पर भूखे पेट भी सो सकती है। इसमें एक गोद भी है, जिसमें एक साथ तीन बच्चे आराम कर सकते हैं। इसके चुंबन में तो अद्भुत ताक़त है, जो घुटने की चोट से लेकर टूटे हुए दिल तक को दुरुस्त कर सकती है। और हाँ, इसके शरीर में छ: जोड़ी हाथ भी हैं।छ: जोड़ी हाथ की बात सुन फरिश्ता चौंका। "छ: जोड़ी हाथ...! अरे नहीं, यह कैसे हो सकता है? ईश्वर ने कहा, " ओह..यह हाथ तो ठीक है, लेकिन दिक्कत यह है कि इसमें अभी तीन जोड़ी आँखें भी फिट करनी बाकी है।" अच्छा...फरिश्ता हैरान होकर बोला। ईश्वर ने सहमति में गरदन हिलाई। "लेकिन, प्रभु तीन जोड़ी आँखें क्यों?" फरिश्ते ने पूछा। "एक जोड़ी आँख अपने बच्चों के दिल में झांकने के लिए।" "दूसरी जोड़ी सिर के पीछे, यह जानने के लिए कि उसका क्या जानना जरूरी है।" "और तीसरी जोड़ी बोलने के लिए।" क्या....बोलने के लिए...! फरिश्ता फिर से चौंका। "हाँ, ज़ुबाँ, ख़ामोश रहकर भी निग़ाहों से सबकुछ बता देने के लिए कि उसे सब बात का इल्म है। "अरे वाह भगवान जी।" "गज़ब की चीज़ बनाई है आपने।" फरिश्ता बोला।फरिश्ता माँ की तारीफ़ सुन-सुन कर थक गया था। बोला, "बस कीजिए भगवान, आप भी थक गए होंगे। बाकी काम कल कर लीजिएगा।" "मैं नहीं रुक सकता, ईश्वर ने कहा।" "यह मेरी बनाई हुई सबसे नायाब चीज़ है।" "यह मेरे दिल के सबसे क़रीब है।" "यह बीमार पड़ने पर अपना इलाज़ भी स्वयं कर लेगी।" "एक मुट्ठी अनाज से ही पूरे परिवार का पेट भर सकती है।" "अपने जवान बेटे को भी रगड़-रगड़ कर नहलाने में इसे कोई शर्म नहीं आएगी।"फरिश्ता माँ के नज़दीक जाकर उसे छूता है। लेकिन ईश्वर, "आपने इसे बहुत नाज़ुक बनाया है।" "यह इतना कुछ कैसे कर लेगी?" नर्म, मुलायम, कोमल....हूं..ईश्वर मुस्कुराए। फिर बोले, "जानते हो फरिश्ते - उपर से भले ही यह तुम्हें कोमल लगे, लेकिन मैने अंदर से इसे बहुत ठोस बनाया है।" "तुम्हें इस बात का तनिक भी एहसास नहीं है कि यह क्या कर सकती है।" "चट्टान की तरह मुश्किलों को मुस्कुराते हुए झेल सकती है।" ईश्वर बोले।इतना ही नहीं, "सोचने के साथ-साथ इसकी तर्क शक्ति भी गज़ब की है।" "साथ ही यह हालात से समझौता भी कर सकती है।" यकायक फरिश्ते की नज़र किसी चीज़ पर ठिठक जाती है। वो माँ के गालों को छूता है। "ओह....! यह क्या ईश्वर,लगता है आपके इस मॉडल से पानी रिस रहा है।" "मैंने तो आपसे पहले ही कहा था न, कि आप इस छोटी सी चीज़ में कुछ ज़्यादा ही फ़ीचर डाल रहें हैं।" "ये तो होना ही था।"फरिश्ते की इस बात पर ईश्वर ने एतराज़ जताई। बोले, "गौर से देखो फरिश्ते, यह पानी नहीं है।" "दरअसल यह आँसू हैं।" लेकिन आँसू किस लिए भगवान?" फरिश्ते ने पूछा। "यह तरीका है, उसकी खुशी को व्यक्त करने का।" "अपने ग़म को छुपाने का।" "साथ ही निराशा, दर्द, तनहाई, दुख और अपने गौरव को जताने के लिए भी ये इन आँसुओं का ही तो सहारा लेगी।"फरिश्ता, ईश्वर के बनाई हुई "माँ" से बहुत प्रभावित हुआ। उसने ईश्वर से कहा, "आप धन्य हो प्रभु।" "आपकी यह कृति सचमुच संपूर्ण है।" "आपने इसे सब कुछ तो दिया है।" "यहाँ तक कि अश्रु भी।" ईश्वर मुस्कुराए और बोले "फरिश्ते तुमने समझने में फिर से ग़लती की है।" "मैंने तो सिर्फ़ एक माँ बनाई थी।" "और इस आँसू को तो माँ ने स्वयं ही बनाया है।"
- राजीव कुमार पटना

मेरी माँ

मेरी माँ
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है,
सारे जग में सबसे सुंदर,
माँ की मूरत क्यों होती है॥
जब नन्हे-नन्हे नाज़ुक हाथों से,
तुम मुझे छूते थे. . .कोमल-कोमल बाहों का झूला,
बना लटकते थे. . .मै हर पल टकटकी लगाए,
तुम्हें निहारा करती थी. . .
उन आँखों में मेरा बचपन,
तस्वीर माँ की होती थी,
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है॥
जब मीठी-मीठी प्यारी बातें,
कानों में कहते थे,
नटखट मासूम अदाओं से,
तंग मुझे जब करते थे. . .पकड़ के आँचल के
साये,तुम्हें छुपाया करती थी. . .
उस फैले आँचल में भी,
यादें माँ की होती थी. . .
माँ बनकर ये जाना
मैंने,माँ की ममता क्या होती है॥
देखा तुमको सीढ़ी दर सीढ़ी,
अपने कद से ऊँचे होते,
छोड़ हाथ मेरा जब तुम भीचले कदम बढ़ाते यों,
हो खुशी से पागल मै,तुम्हें पुकारा करती थी,
कानों में तब माँ की बातें,
पल-पल गूँजा करती थी. . .
माँ बनकर ये जाना
मैनें,माँ की ममता क्या होती है॥
आज चले जब मुझे छोड़,
झर-झर आँसू बहते हैं,
रहे सलामत मेरे बच्चे,
हर-पल ये ही कहते हैं,
फूले-फले खुश रहे सदा,
यही दुआएँ करती हूँ. . .
मेरी हर दुआ में शामिल,
दुआएँ माँ की होती हैं. . .
माँ बनकर ये जाना मैंने,
माँ की ममता क्या होती है॥
- सुनिता सानु
(अत्यंत खूबसूरत एवं माँ की याद दिलाने वाली अन्य सामग्री के लिये )

Wednesday, April 9, 2008

माँ दरअसल आकाश है!



मां पर लिखना नहीं चाहिए।
बोले तो मां अलिख्य विषय है।
मां दरअसल आकाश है,
उस पर क्या लिखो,
कहां से शुरु करो,कहां खत्म करो,
कहां लपेटो।उस आकाश की छांह में पड़े रहो,
लिखने-ऊखने का मामला बेकार है।
कित्ता भी लिख लो,
आकाश को समेटना संभव कहां है भला।


alok puranik जी ने October 27th, 2007 ,8:59 pm

माँ के नाम


माँ के नाम

बचपन में अच्छी लगे, यौवन में नादान !
आती याद उम्र ढले क्या थी माँ कल्यान !!1!!
करना माँ को खुश अगर कहते लोग तमाम !
रौशन अपने काम से करो पिता का नाम !!2!!

विद्या पाई आपने बने महा विद्वान !
माता पहली गुरु है सबकी ही कल्याण !!3!!

कैसे बचपन कट गया, बिन चिंता कल्यान !
पर्दे पिछे माँ रही, बन मेरा भगवान !!4!!

माता देती सपन है, बच्चो को कल्यान !
उनको करता पूर्ण जो, बनता बही महान !!5!!

बच्चे से पुछो जरा, सबसे अच्छा कौन !
उंगली उठे उधर जिधर, माँ बैठी हो मौन !!6!!

माँ कर देती माफ है, कितने करो गुनाह !
अपने बच्चों के लिये उसका प्रेम अथाह !!7!!


- सरदार कल्याणसिंह

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Tuesday, April 8, 2008

क्षमा करना माँ - घुघूती बासूती द्वारा

क्षमा करना माँमैंने भी तुम्हारी इच्छाओं,अपेक्षाओं को नज़र अन्दाज कर दिया माँक्षमा करना माँ ,मैं तुम जैसी न बन सकी,मैं प्रश्न करती रहीऔरों से नहीं तो स्वयं से तो करती रही माँ,मैं त्याग तो करती रहीकिन्तु इन प्रश्नों ने मुझेत्यागमयी न बनने दिया,मैं ममता तो लुटाती रहीकिन्तु ममतामयी न हो सकी।मैंने तो सुहाग चिन्हों को भी नकार दिया,साखा, पोला, लोहा, सिन्दूर, बिछिये,चरयो कहीं पेटी में रख दिये,सौभाग्यवती,पुत्रवती भव: न कहने दिया कभी,समझौते के तौर परपिताजी बुद्धिमती ही बनाते गये मुझेऔर इस बुद्धि ने ही सिखाये मुझे इतने प्रश्नप्रश्न पर प्रश्न !कोई मुझे उत्तर न दे सका माँ।क्यों मेरी बेटियों के जन्म से लोग दुखी थेक्यों मेरे जन्म पर पेड़े न बँटे थेक्यों मेरा नाम मुझसे छिन गयाक्यों मेरा गाँव मुझसे छिन गयाक्यों मेरा मैं मुझसे छिन गया ?मेरे प्रश्नों के मेरे पास सही उत्तर तो न थेकिन्तु एक प्रतिक्रियावाद मेंमैंने मन ही मन अपना इक नाम रख लियामैंने खूब चाहा पुत्रवती न बननामैंने और अधिक चाहा पुत्रीवती बननाशायद इच्छा शक्ति से हीमैंने पुत्रियों को जन्म भी दे दिया।कितनी खुश थी मैं एक पुत्री होने परफ़िर एक और पुत्री होने पर मैं और खुश हुईमैंने राहत की साँस लीअब तो मैं पुत्रवती होने से बच गई।मुझे पुरुषों से,पुत्रों से कोई शिकायत न थी माँमैं तो बस उन अवाँछित आशीर्वादों से तंग थी माँ।मैं तंग थी उस संस्कृति से माँजिसमें मेरा अवमूल्यन होता था माँजिसमें मेरी ही नस्ल के शत्रु बसते थेजिसमें मेरी ही नस्ल उत्साहित थीन ई न ई तकनीक आई थीमेरी नस्ल का नामों निशां मिटाने कोहमने तो पढ़ा विज्ञान हमें आगे बढ़ाएगाकिन्तु यहाँ तो विज्ञानहमें संसार से ही विदा कर रहा थाऔर मेरी संस्कृति ने, समाज नेविज्ञान का क्या सदुपयोग निकालाफ़िर भी सब मुझे इन्हीं दोनों का वास्ता देते थेतो मैं, माँ, बस प्रश्न पूछती थी ,तुमसे नहीं तो स्वयं से ।याद है माँ,जब मैं तुम्हारे घर आती थीजब तुम खाना बनाती थींतब यही होता था प्रश्नजवाँई को क्या है खाना पसन्दजब मैं सास के घर जाती थीकोई नहीं पूछता था कि क्या है मुझे पसन्दमैं कहाँ घूमना चाहती थीमैं क्या खाना चाहती थींतब भी जब मैं खाना बनाऊँतब भी जब कोई और बनाएक्यों माँ ?क्या मेरी जीभ में स्वाद ग्रन्थि न थींमेरा पेट न थाक्या मेरी इच्छाएँ न थीं ?बड़ी बड़ी बातों को छोड़ो माँछोटी छोटी बातें भी सालती हैं।फ़िर वे ही प्रश्नकितने सारे प्रश्नजो मुझे ममता, गरिमा व त्यागसबके प्रचुर मात्रा में होने पर भीममतामयी नहीं बनने देतेगरिमामयी नहीं बनने देतेत्यागमयी नहीं बनने देतेकुल मिलाकर मेरे स्त्रीत्व को(मेरी नजर में नहीं समाज,संस्कृति वालों की नजर में )मुझसे चुरा लेते हैं।काश, ये प्रश्न न होतेपर माँ ,इन्हीं प्रश्नों पर तोमेरा बचा खुचा मैं टिका है।जानती हो माँ,आखिर समय बदल गयाअब जब मैं पुत्रियों के घर जाती हूँवे व जवाँई पूछते हैंक्या खाओगी माँकहाँ चलोगी माँकौन सी फ़िल्म देखोगी माँकौन सी पुस्तक खरीदोगी माँअचानक इस पुत्रीवती माँ की भीपसन्द नापसन्द हो गईउसकी जीभ में फ़िर से सुप्त स्वाद ग्रन्थियाँ उग गईंउसकी आँखों,उसका मन,उसका मस्तिष्क, सबका पुनर्जन्म हो गयाऔर मैं पुत्रीवती, माँ व्यक्ति बन गई ।देखो माँ, अव्यक्ति मानी जाने वालीइन स्त्रियों, मेरी पुत्रियों नेमुझे व्यक्ति बना दिया
साभार: http://ghughutibasuti.blogspot.com/

माँ

माँ
माँ, ये एक ऐसा शब्द है जिसकी महत्ता ना तो कभी कोई आंक सका है और ना ही कभी कोई आंक सकता है। इस शब्द मे जितना प्यार है उतना प्यार शायद ही किसी और शब्द मे होगा। माँ जो अपने बच्चों को प्यार और दुलार से बड़ा करती है। अपनी परवाह ना करते हुए बच्चों की खुशियों के लिए हमेशा प्रयत्न और प्रार्थना करती है और जिसके लिए अपने बच्चों की ख़ुशी से बढकर दुनिया मे और कोई चीज नही है। जब् हम छोटे थे और हमारी माँ हम को कुछ भी कहती थी तो कई बार हम उनसे उलझ पड़ते थे कि आप तो हमको यूँही कहती रहती है कई बार माँ कहती थी कि जब तुम माँ बनोगी तब समझोगी और ये सुनकर तो हम और भी नाराज हो जाते थे। हम लोग कभी भी माँ को पलट कर जवाब नही देते थे हाँ कई बार बहस जरूर हो जाती थी।
हमारी दीदियों की शादी के बाद तो माँ हमारी सबसे अच्छी दोस्त बन गयी थी और बाद मे कुछ सालों के लिए हमारे पापा दिल्ली आ गए थे जिसकी वजह से हमारी और माँ की आपस मे ख़ूब छनती थी। हम दोनो बहुत चाय पीते थे पापा अक्सर कहते थे की तुम लोगों को बस चाय पीने का बहाना चाहिऐ । घर मे है तो चाय चाहिऐ बाहर से घूम कर आये है तो चाय चाहिऐ , बोर हो रहे है तो भी चाय चाहिऐ। सच मे जब् भी कोई नौकर दिख जाता हम लोग चाय की फरमाइश कर देते ।क्या मस्ती भरे दिन थे । हमारे दोस्त तो ये भी कहने लगे थे की अब तो ममता सबको भूल जायेगी क्यूंकि इसके मम्मी-पापा जो दिल्ली आ गए है। और हुआ भी वही जब् भी छुट्टी होती बस बच्चों को गाड़ी मे डाला और पहुंच गए मम्मी के यहाँ।
पर कई बार हम बच्चे ना चाहते हुए भी माँ को दुःख दे जाते है कुछ बातें ऐसी होती है जिन्हे हम चाहकर भी नही भूल पाते है। जैसे यहाँ पर हम जो वाक़या लिख रहे है वो इतना समय बीत जाने पर भी हम भूल नही पाए है क्यूंकि हमे हमेशा ये लगता है कि हमने माँ से इस तरह क्यों बात की ? ये बात दिसम्बर २००४ की है उन दिनों माँ की तबियत कुछ खराब चल रही थी। हमे अंडमान लौटने मे कुछ दस दिन ही बचे थे और इसलिये माँ हमसे मिलने दिल्ली आयी हुई थी। दिल्ली मे हमारी भतीजी भी होस्टल मे रहती थी और चुंकि हम अंडमान मे थे इसलिये हमारा बेटा भी अपने collage के होस्टल मे रहता था । एक दिन की बात है घर मे mutton बना था ,हमारा बेटा और हमारी भतीजी दोनो ही होस्टल से घर आये थे ।
हमारे बेटे को माँसाहारी खाना बहुत पसंद है । हम सभी खाने का मजा ले रहे थे आख़िर माँ ने जो बनाया था वो कहते है ना की माँ के हाथ के बने खाने का स्वाद ही अलग होता है हम लोग लाख कोशिश करे वैसा नही बना सकते। आख़िर मे एक पीस बचा था तो एक पीस क्या रखा जाये ये सोच कर माँ ने बेटे को कहा की तुम ले लो और हमने भतीजी को बोला और बाद मे हमने अपनी भतीजी को वो चावल के साथ खाने के लिए serve किया ये कहते हुए की बेटा तो आजकल घर मे ही है आप फिर बना दीजियेगा पर शायद हमारे कहने का अंदाज कुछ गलत था जो माँ को अच्छा नही लगा और बाद मे वो उठकर अन्दर कमरे मे चली गयी थी । जब् हम अन्दर कमरे मे गए तो हम हैरान रह गए उनको इतना दुःखी देखकर और हमने उनसे माफ़ी मांगी कि आइन्दा हम ऐसा कुछ नही करेंगे जिससे उन्हें दुःख हो। पर आज भी हम इस बात को भुला नही पाते है ,आज भी ये सोच कर हमे अपने पर ग़ुस्सा आता है की हमने माँ से ऐसे क्यों बात की थी।

बिटिया जरा सम्भल के__


- मालविका अनुराग

सारी दुनिया में आपका पाला भले लोगों से ही पड़े, यह कतई जरूरी नहीं। घर से बाहर या कई बार घर में भी आपकी हँसती, खिलखिलाती बिटिया का सामना बुरी नजरों से हो सकता है। ऐसे में जरूरत होगी उसे संभलकर, सूझबूझ व चतुराई से अपना रास्ता बनाने की। ताकि वह वेश बदले मुखौटे पहने खलनायकों से बच सके।पिछले दिनों एक स्तंभकार की टिप्पणी पढ़ने को मिली, जिसमें उन्होंने लिखा है, 'नारी की देहयष्टि को देखकर मवाली से लेकर महात्मा पुरुष तक के मन, हृदय, शरीर में कैसे-कैसे स्पंदन उठते हैं, इसके बारे में शायद वे नहीं जानतीं क्योंकि वे पुरुष नहीं हैं। पुरुष के हार्मोंस और एंजाइम्स की कार्यशैली के बारे में उन्हें ज्यादा पता नहीं होता।' यह टिप्पणी एक पुरुष की ही उनकी प्रकृति और मानसिकता के बारे में सहज स्वीकारोक्ति है और महिलाओं के लिए चेतावनी देने वाले अलार्म से कम नहीं है। बरसों पहले कॉलेज में जॉब लगने पर मैं खुशी-खुशी अपनी व्याख्याता मैडम से मिलने गई। थोड़ी देर बाद उन्होंने पूछा, 'कैसा माहौल है, कैसे लोग हैं?' मैं नितांत उत्साह से लबरेज थी, अपनी ही रौ में बोली, 'सब लोग बहुत ही अच्छे हैं।' तब उन्होंने जवाब दिया, 'अभी तुम्हेंकई तरह के लोग मिलेंगे।' उनके बोलने का यही मतलब था कि इतनी जल्दी कोई निर्णय मत लो। मैडम की बात सुनकर में असमंजस में पड़ गई और मुझे बुरा भी लगा। लेकिन समय के गुजरने के साथ-साथ मैडम के बोलों का निहितार्थ खुलता गया और मुझे सतर्क भी बनातागया। एक छोटे से वाक्य में उन्होंने कितनी गंभीर बात बोल दी थी। उनका स्पष्ट इशारा कुछ पुरुषों की बुरी मानसिकता तथा उनके व्यवहार की ओर था। हालाँकि सब लोग ऐसे नहीं होते, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं। कभी सज्जनता, मार्गदर्शक, कभी पिता-भाई स्वरूप,कभी निश्चल मैत्री का मुखौटा ओढ़े हुए ये हमारे सामने आते हैं और जब भूल से इस मुखौटे की कोई पर्त हवा में उड़ती है तो इन लोगों का असली चेहरा सामने आ जाता है। परिजनों द्वारा प्रदत्त सुरक्षा तथा स्वच्छता से भरे वातावरण के कारण अधिकांश युवतियाँ ऐसेचेहरों को पहले पहल नहीं समझ पातीं। वे सारी
दुनिया को अपने घर और परिवार जैसा ही समझती हैं। इसी सोच के साथ वे घर से बाहर कदम भी रखती हैं, उन्हें लगता है जैसी वे घर में रहतीं, पहनतीं, आचरण करती हैं, वही बाहर भी कर सकती हैं, पर असल में उन्हें कुछ बिंदुओं पर सावधानी रखनी चाहिए। आइए जानें, क्या हैं ये बिंदु-
* शालीन और गरिमामय पहनावे को तरजीह दें। शालीन वस्त्र हमेशा आपके सम्मान को बढ़ाएँगे ही, साथ ही छींटाकशी के अवसरों को भी नगण्य कर देंगे।
* मुँहबोले रिश्ते बनाने में जल्दबाजी न दिखाएँ। कुत्सित सोच वाले लोग अधिकतर रिश्तों की आड़ में ही दुष्चक्र फैलाते हैं। बहुत मीठा बोलने वाले लोगों से कुछ दूरी बनाए रखें। याद रखिए जो दिखता है, वह हर बार सच नहीं होता।
* घर के बाहर प्रेक्टिकल सोच और प्रोफेशनल व्यवहार को अपनाइए। कार्यालयीन रिश्तों में भी इमोशनल होने से बचें, अपने कर्तव्यों में कोताही न बरतें। ऐसा करने से एक महिला होने के नाते आप सहकर्मियों से सम्मान ही पाएँगी और विकृत मनोवृत्ति के लोग आपसे बुरा व्यवहार करने की हिमाकत नहीं कर पाएँगे।
* यदि आपके संपर्क में आने वाला व्यक्ति चाहे वह आपका सहकर्मी हो, व्यापार से संबंधित हो, परिचित हो या फिर रिश्तेदार ही क्यों न हो, कभी कोई अनचाहा व्यवहार करने की चेष्टा करे, कोई द्विअर्थी टिप्पणी करे, अश्लील भावभंगिमा बनाए तब चुप रहने की बजाय उसका पुरजोर विरोध कीजिए और जता दीजिए कि उसका ऐसा बर्ताव सहन नहीं किया जाएगा। तभी आप भविष्य में दुर्व्यवहार को टाल सकती हैं।
* पारिवारिक फंक्शन, शादियों में बच्चों खासकर नन्ही बालिकाओं को किसी परिचित के भरोसे न छोड़ें। बच्ची यदि आपके किसी निकट रिश्तेदार के ही किसी अनचाहे व्यवहार, टिप्पणी के बारे में आपको बताना चाहे तो उसे झिड़के नहीं, उसकी बात पर गौर करें। उसे अकेला न छोड़ें भले ही आपको फंक्शन की रस्मों का आनंद लेने में अवरोध आए। बच्ची की सुरक्षा आपका पहला फर्ज है।
* महिलाएँ पारिवारिक रिश्तों की डोर को कभी भी कमजोर न पड़ने दें। पारिवारिक रिश्तों में विघटन झेलती हुई महिलाएँ आसानी से इमोशनली ब्लैकमेलिंग का शिकार हो जाती हैं। तब सहयोग के लिए बढ़े हाथ भविष्य में कुछ और ही हथियाने की मंशा लिए उस महिला के जीवन में प्रवेश कर जाते हैं।
* अपनी बड़ी होती, स्कूल-कॉलेज जाती हुई बेटियों से हमेशा दोस्ताना संबंध बनाएँ। उसकी छोटी से छोटी बात सुनें, नजरअंदाज न करें। आपकी परवाहभरी परवरिश में वह दुनियादारी की कई बातें घर में ही सीख जाएगी और समय आने पर अच्छे-बुरे में फर्क भी कर पाएगी। उसे आत्मविश्वासी बनाएँ। अपने अनुभवों से सीख दें और लोगों को पहचानना सिखाएँ।
* महिलाएँ यदि मजबूत बनें, सुदृढ़ विचार शक्ति को अपनाएँ, पारिवारिक संबंध और दूसरी महिलाओं से भी आपसी संबंध मजबूत बनाएँ तो अनेक अनचाही चीजों को विदा कर सकती हैं और परिवार तथा समाज में भी गरिमामय खुशहाल जीवन जी सकती हैं।
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परिभाषा से परे है माँ


- तन्मय वेद 'तन्मय'

माँ एक सुखद अनुभूति है। वह एक शीतल आवरण है जो हमारे दुःख, तकलीफ की तपिश को ढँक देती है। उसका होना, हमें जीवन की हर लड़ाई को लड़ने की शक्ति देता रहता है। सच में, शब्दों से परे है माँ की परिभाषा।माँ शब्द के अर्थ को उपमाओं अथवा शब्दों की सीमा में बाँधना संभव नहीं है। इस शब्द की गहराई, विशालता को परिभाषित करना सरल नहीं है क्योंकि इस शब्द में ही संपूर्ण ब्रह्मांड, सृष्टि की उत्पत्ति का रहस्य समाया है। माँ व्यक्ति के जीवन में उसकी प्रथम गुरु होती है, उसे विभिन्ना रूपों-स्वरूपों में पूजा जाता है। कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में मातृ ऋण से मुक्त नहीं हो सकता। भारतीय संस्कृति में जननी एवं जन्मभूमि दोनों को ही माँ का स्थान दिया गया है। मानव अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति जन्मभूमि यानी धरती माँ से, तो जीवनदायी आवश्यकता की पूर्ति जननी से करता है। मनुष्य
माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है
से लेकर पशु एवं पक्षियों तक को आत्मनिर्भर, स्वावलंबी एवं कुशल बनाने के लिए उनकी माँ उन्हें स्वयं से अलग तो करती है परंतु उनकी सुरक्षा के प्रति हमेशा सचेत रहकर अपने ममत्व को बनाए रखती है। परंतु ठीक इसके विपरीत कई बार मानव स्वयं अपने बढ़ते बुद्धि विकास के कारण अपनी सुरक्षा एवं आवश्यकता के प्रति स्वार्थी होकर माँ और उसकी ममता के प्रति उदासीन हो जाता है। फिर वह अपनी पूर्ति के लिए जननी और जन्मभूमि दोनों का दोहन तो करता है परंतु उनके प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करना भूल जाता है। जो व्यक्ति अपने इन कर्तव्यों का पालन करता है वो स्नेह, ममत्व की छाँव में रहकर सद्गुण, संस्कार, नम्रता को प्राप्त करता है। वह अपने जीवन में समस्त सुखों और जीवन लक्ष्यों को प्राप्त कर ऊँचाइयों को पा लेता है। वहीं ऐसे व्यक्ति जो अपने कर्तव्यों के निर्वहन में मातृशक्ति को, उसके स्नेह, ममत्व को उपेक्षित कर उन्नति का मार्ग ढूँढने का प्रयास करते हैं, वे जीवन भर निराशा के अलावा कुछ भी प्राप्त नहीं कर पाते। माँ अनंत शक्तियों की धारणी होती है। इसीलिए उसे ईश्वरीय शक्ति का प्रतिरूप मानकर ईश्वर के सदृश्य माना गया है। माँ के समीप रहकर उसकी सेवा करके, उसके शुभवचनों, शुभाशीष से जो आनंद प्राप्त किया जा सकता है वह अवर्णनीय है। अपने दिए स्नेह के सागर के बदले माँ बच्चों से कुछ नहीं चाहती। वह हर हाल में केवल बच्चों का हित सोचती है, खुद को मिटाकर भी। इसलिए अपनी ओर से हम उसे कभी दुःख न दें, यही हमारा कर्तव्य होना चाहिए।

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