मै रोया प्रदेश में, भीगा माँ का प्यार !
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार !!

Thursday, March 20, 2008

बेटी होने का सुख या दुख - अनु सपन की एक गज़ल



मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही

घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ

ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,

ओढ कर स्वपन सारा शहर सो गया,

राह पापा की तकती रही बेटीयाँ.

छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,

छोड माँ-बाप-बेटा-बहू चल दिये,

खुशबू बन के महकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ
अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,

अब की तनख्वहा पे ये चीज़ लाना हमें,

कहते-कहते झिझकती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेतीयाँ

इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,

इस जमाने ने शर्मो-हया बेच दी,

राह चलते सहमती रही बेटीयाँ.
मेरे घर में चहकती रही बेटीयाँ, शहर भर को खटकती रही बेटीयाँ

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